सीहोर जिले की तहसील इछावर से 10 किलोमीटर दूर है, ग्राम देवपुरा, बारहखंबा जहाँ पशुपतिनाथ का मंदिर स्थित है। यहाँ स्थित मूर्ति सदियों पुरानी है और मान्यता है कि ये देवता, मवेशियों (पशुओं) के देवता हैं। इसीलिये इन्हें पशुपतिनाथ कहा जाता है।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था व जनजीवन में पशुओं का महत्वपूर्ण स्थान होता है, कृषि कार्य व खान-पान सभी में पशुओं की बड़ी भूमिका होती है। इसीलिये इनका महत्व भी अधिक है और ये पशु ग्रामीणों की दिनचर्या में शामिल होते हैं। पशुओं के बीमार होने, गुमने, चोरी होने जैसी समस्याएं आम हैं ।ग्रामीणजन इन समस्याओं के समाधान हेतु पशुपतिनाथ से गुहार लगाते हैं, मानता करते हैं और प्रार्थना करते हैं। मवेशियों के गर्भाधान, संतान आदि मानता भी पशुपालक यहाँ करते हैं। कहते हैं यहाँ मन से की गई सभी प्रकार की कामनाएं अवश्य पूर्ण होती हैं।
किवदंती है कि इस मूर्ति को अनेक बार यहाँ से ले जाने का प्रयास हुआ, मूर्ति चोरी करने का भी प्रयास हुआ। ऐसे ही एक प्रयास में मूर्ति बैलगाड़ी पर रख ली गई किंतु बैलगाडी का पहिया गर्मी के मौसम में जमीन में धंस गया, बस तभी से यह मूर्ति वर्तमान स्थान पर विराजित है। पहले नीलबड़ समिति इस स्थान का रखरखाव करती थी जो अब प्रशासन ने अपने हाथ में ले लिया है।
इस मूर्ति पर पूजा करते समय दूध चढाया जाता है। दीपावली के अगले दिन पड़वा को यहाँ मेला लगता है, जिसमें लगभग 5 लाख लोग आते है, अनेकों टेंकर दूध चढ़ता है और इस एक दिवसीय मेले में ट्रकों से नारियल लाये जाते हैं जो पशुपतिनाथ को अर्पित किये जाते हैं। इस मेले में दूर-दूर से श्रद्धालु आते हैं और पशुपतिनाथ के दर्शन कर मानता करते हैं।
पानी नहीं बरसने पर भी आस-पास के गांव के नागरिक, पानी की मानता के लिये यहाँ आते हैं और पशुपतिनाथ की कृपा से भीगते हुये घर लौटते हैं।
यहाँ से दो किलोमीटर दूर नान्या देव अर्थात् शनि मंदिर है जिनकी प्रतिमा महाराष्ट्र के शनि शिगणापुर की तरह बड़ी व लम्बी है। इसी के पास डूंडालावा गांव है जहाँ इंदौर के सर सेठ हुकुमचंद कासलीवाल का जन्म हुआ था, यह गांव प्राचीनकाल में बड़ा समृद्ध स्थान था। कहते हैं यहाँ अनंत धन सम्पदा गढ़ी हुई है।
यहाँ से चार किलोमीटर पर चार हनुमान का मंदिर है यह भी सिद्ध स्थान है। अब यह स्थान त्रिवेणी संगम के नाम से जाना जाता है और यह स्थल अब पर्यटन स्थल के रूप में भी प्रसिद्द हो रहा है। यहाँ पाषाण पर अंकित भाषा आज तक अबूझ है, पुरातत्व विभाग भी इसे पढ़ नहीं सका है।
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