भगवान दत्तात्रेय पूर्णिमा या दत्ता पूर्णिमा मार्गशीर्ष माह की पूर्णिमा तिथि पर मनाई जाती है। दत्तात्रेय को ब्रह्मा, विष्णु और महेश का अवतार माना जाता है । तीन सिर और छह भुजाओं से समृद्ध, भगवान दत्तात्रेय का जन्म ऋषि अत्रि और उनकी धर्मी पत्नी, देवी अनसूया से हुआ था। इस बार दत्त पूर्णिमा 18 दिसम्बर को मनाई जाएगी। आइए जानते हैं पूजा का शुभ मुहूर्त महत्व, पूजा विधि और कथा

शुभ मुहूर्त
पूर्णिमा तिथि प्रारम्भ - 18 दिसंबर, शनिवार सुबह 07.24 से
पूर्णिमा तिथि समाप्त- 19 दिसंबर, रविवार सुबह 10.05 तक

दत्ता पूर्णिमा का महत्व
भगवान दत्तात्रेय को भगवान विष्णु के 24 अवतारों में से एक माना जाता है। वह एक ऐसे ऋषि हैं जिन्होंने बिना गुरु के ज्ञान प्राप्त किया। भगवान दत्तात्रेय की पूजा महाराष्ट्र, गोवा, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तेलंगाना और गुजरात और मध्य प्रदेश के कई हिस्सों में की जाती है। इस दिन विशेष पूजा की जाती है। उपवास के लिए, भक्त एक दिन का उपवास रखते हैं और भगवान दत्तात्रेय की पूजा करने के लिए ध्यान लगाते हैं। आध्यात्मिक दृष्टिकोण से, दत्तात्रेय के तीन सिर तीन गुणों का प्रतिनिधित्व करते हैं - सत्त्व, रजस और तमस और उनके छह हाथ यम (नियंत्रण), नियम (नियम), साम (समानता), दम (शक्ति), दया का प्रतिनिधित्व करते हैं।

दत्तात्रेय जयंती की पूजा विधि

    प्रातः ब्रह्ममुहूर्त में उठकर स्नान करें और फिर स्वच्छ वस्त्र धारण करें।
    पूजा स्थान पर चौकी बिछाएँ और उसे गंगाजल छिड़ककर शुद्ध करें।
    इसके उपरांत भगवान दत्तात्रेय कि तस्वीर स्थापित करें ।
    तस्वीर स्थापित करने के बाद भगवान दत्तात्रेय को फूल, माला आदि अर्पित करें।
    यह सब करने के बाद भगवान दत्तात्रेय को विधिविधान से धूप व दीप दिखाएं।
    और अंत में आरती कर सबमें प्रसाद वितरित करें।

भगवान दत्तात्रेय की कथा
महर्षि अत्रि मुनि की पत्नी अनसूया के पतिव्रत धर्म की परीक्षा लेने के लिए तीनों देव ब्रह्मा, विष्णु, महेश पृथ्वी लोक पहुंचे। उन्होंने माता अनसूया के सम्मुख भोजन की इच्छा प्रकट की। तीनों देवताओं ने शर्त रखी कि वह उन्हें निर्वस्त्र होकर भोजन कराएं। इस पर माता संशय में पड़ गई।उन्हें अपनी दिव्य दृष्टि से ज्ञात हुआ कि वे ऋषि कोई और नहीं स्वयं ब्रह्मा विष्णु और महेश हैं। माता अनसूया ने अत्रिमुनि के कमंडल से जल निकाला और तीनों साधुओं पर छिड़का। वे ऋषि छह माह के शिशु बन गए। तब माता ने उन्हें भोजन कराया। त्रिमूर्तियों के शिशु बन जाने पर तीनों देवियां (पार्वती, सरस्वती और लक्ष्मी) पृथ्वी लोक में पहुंचीं और माता अनसूया से क्षमा याचना की। तीनों देवों ने भी अपनी गलती को स्वीकार कर माता की कोख से जन्म लेने का आग्रह किया। तीनों देवों ने दत्तात्रेय के रूप में जन्म लिया। तभी से माता अनसूया को पुत्रदायिनी के रूप में पूजा जाता है।