International Women's Day (अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस)
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International Women's Day (अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस)


  • औरत को लेकर हमारी सोच किसी दरख्त की तरह जहां के तहां खड़ी
  • सौभाग्यवती होने का सीधा मतलब है औरतों को पति से पहले ही मरना

19वीं सदी में एक वैज्ञानिक हुए थे चार्ल्स डार्विन। ब्रिटेन में अमीर घराने के इस युवक को मेडिकल की पढ़ाई के लिए एडिनबरा भेजा गया। बेहद खूबसूरत समुद्र तटों से घिरे इस शहर ने एकाएक डार्विन का मन बदल दिया। न! वे पढ़ाई छोड़कर कुष्ठरोगियों या गरीबों की सेवा के लिए नहीं निकल पड़े, वे निकले समंदर की सैर पर।

सालों तक ब्रिटिश नेवी के जहाज पर घूमते हुए डार्विन ने कई खोजें की। इनमें सबसे बड़ी खोज थी- नेचुरल सलेक्शन, यानी कुदरत उसी को जिंदा रखती है जो ताकतवर हो और ताकतवर वही, जो ज्यादा से ज्यादा मुश्किलें जिए। डार्विनियन दुनिया ने घुमा-फिराकर साबित कर दिया कि मर्द, औरत से कहीं ज्यादा ताकतवर है। वो बनैले पशुओं का शिकार करता है। महल बनाता है, आविष्कार करता है, युद्ध में जाता है और यहां तक कि नरसंहार के बाद शांति-गीत भी मर्द ही लिखता है। मेडिसिन पढ़ने गए युवक डार्विन ने पढ़ाई छोड़ सालों धक्के खाए और तब जाकर ये सिद्धांत सामने आया।

नौंवी में डार्विन पढ़ते हुए कोई लड़की तसव्वुर भी नहीं कर सकती कि वो पढ़ाई छोड़ दुनिया की खाक छानने निकल पड़ेगी। थोपा हुआ काम करने में सुभीता है, जबकि समंदर के हिचकोलों में खतरा। लड़कियां सुभीता चुनती रहीं, और मर्द खतरे। तभी तो मर्द लगातार ज्यादा मजबूत, ज्यादा बुद्धिमान होते गए। जबकि औरतें ज्यादा नाजुक और कमअक्ल। संवेदनशील पुरुष-बिरादरी ने बेचारी स्त्रियों को 'महिला दिवस' नाम की ढफली दे दी। सालाना जलसे में उससे इतना शोर निकले कि सालभर औरतें में बराबरी का सारा चाव उसी दिन पूरा हो जाए। हुआ भी यही, कैलेंडर पर साल तो बढ़ रहे हैं लेकिन औरत को लेकर हमारी सोच किसी दरख्त की तरह जहां के तहां खड़ी है।

हम औरत को चाहे असीसें, या गरियाएं- मायने उसके वही रहते हैं। मिसाल के तौर पर आशीर्वाद को ही लें, शादीशुदा औरतें सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद पाती हैं, जबकि पति चिरंजीवी होने का। इस आशीष पर लहालोट होती औरतें ये बारीक बात एकदम बिसरा देती हैं कि सौभाग्यवती होने का सीधा मतलब है- चाहे जितना लंबा जिओ, लेकिन पति से पहले ही मरना। सिर्फ आशीर्वाद देने से बात न बने और कोई 'लोलुप' औरत खुद के भी ज्यादा जीने की ख्वाहिश न पाल ले, इसके भी खूब इंतजाम हैं। शादी के साथ ही औरत को 16 श्रृंगारों से लाद दिया जाता है। रस्म के नाम पर थोपा गया सिंगार-पटार त्वचा में किसी बढ़िया लोशन से भी जल्दी उतरता है। इसके बाद खेल का दूसरा चरण शुरू होता है। पति की मौत के बाद एक झटके में औरत से ये सारा सिंगार छीन लो। सिर के बीचोंबीच सुर्ख सिंदूर से लेकर पैरों की पायल और बिछुए तक। इनकी जगह सफेद या धूसर रंग ओढ़ा दो। पर्व-त्योहारों में उसके आने तक की मनाही कर दो। विधवा औरत वो संक्रमण है जो हैजे से भी जल्दी सबको गिरफ्त में ले लेती है। बस्स! खेल का परदा गिर जाता है। इसके बाद शायद ही कोई शादीशुदा औरत हो, जो सौभाग्यवती होने के आशीर्वाद पर अंगुली उठाए।

औरतों के खिलाफ बुने गए आशीर्वादों में एक नमूना सबसे दमदार है- दूधो नहाओ, पूतो फलो। तर्कप्रेमी पुरुष इसके समर्थन में एक के बढ़कर एक कलाबाजियां दिखाते हैं, वे बताते हैं कि दुनिया का कोई भी इंश्योरेंस इस आशीर्वाद के आगे कुछ नहीं, कैसे? इसकी पूरी व्याख्या की गई कि कहीं कोई शकोशुबहा न रहे। इसके मुताबिक दूध से वही औरत नहा सकती है, जिसका घर धन-दौलत से पटा पड़ा हो। औरत, जिसे दूध का गिलास भी मर्द के बाद नसीब होता है, वो दूध से तभी नहा सकती है जब घर में पैसों की हुंडियां गड़ी हों। तो औरत को मिला ये आशीर्वाद असल में औरत नहीं, बल्कि कुल-कुनबे के मालदार होने की इच्छा है। आशीर्वाद का दूसरा हिस्सा है- पूतो फलो, पूत यानी पुत्र और पोता। ये सीधी धमकी है कि दूध में चाहे जितनी डुबकियां लगाओ लेकिन औलाद तो पुत्र ही देना। लड़का-लड़की के जन्म के पीछे साइंस की क्रोमोजोमल थ्योरी इस आशीर्वचन के आगे अफवाह बनकर रह जाती है।


आशीर्वाद के साथ-साथ डबल-प्रोटेक्शन के लिए एक और तरीका अपनाया जाता है कि औरत व्रत-उपवास करे। हमारे यहां जितने भी उपवास और तीज-त्योहार हैं, कमोबेश सारे ही मर्दों की दीर्घायु के इर्द-गिर्द परिक्रमा करते हैं। किसी भी उम्र और रिश्ते का पुरुष अनदेखा न रह जाए, इसके लिए पति से लेकर पुत्र तक सारे व्रत काफी सावधानी से संजोए गए। युवा पुत्र संतान की लंबी उम्र के लिए बूढ़ी मां भी भूखी रहती है और नव-ब्याहता पत्नी भी। दूसरी ओर ऐसा कोई व्रत नहीं जो बेटी-मां या पत्नी के लिए रखा जाता हो और सच कहें तो इसकी कोई जरूरत भी तो नहीं है। औरतों की सुरक्षा और जीवन आखिरकार तो मर्दों से ही है। अगर वे सलामत, तो हम सलामत. लिहाजा सारी उम्र हम 'शातिर' औरतें मर्दों के बहाने अपनी सलामती की दुआ मांगती रहती हैं।

अब बारी आती है गालियों की। बीते साल के आखिर में ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी ने अपने पन्ने से 'बिच' शब्द बड़ी मान-मनौवल के बाद हटाया। डिक्शनरी से जुड़े ओहदेदारों का तर्क था कि ये शब्द फिलहाल कोई खास नुकसान करता नहीं दिख रहा। आखिरकार अपना गुस्सा दिखाने के लिए दुनियाभर की औरतों को दस्तखत करके भेजना पड़ा। इसके बाद भी बदलाव में पूरा साल लगा। अंग्रेजी तो चलिए, तब भी सज्जनों की भाषा है। ठेठ भाषा हिंदी से लेकर दूसरी तमाम भाषाओं में लगभग 220 शब्द हैं, जो जनाने अंगों को जोड़ते हुए छुट्टा गालियां देते हैं। औरत को वेश्या बताने के लिए 500 से ज्यादा शब्द खोजे गए, वहीं पुरुष वेश्या के लिए कुल 65 शब्द हैं। वजह! वेश्या के जीवन की ही तरह औरत के शरीर की कोने-कंदराएं भी बेहद रहस्यमयी हैं। उसे खोजने में इतनी ताकत लगती है कि गुस्से में खकुआया पुरुष गालियों के अलावा दूसरा कोई शब्द उच्चार ही नहीं पाता। वो गालियां जो सीधे औरत की देह से होते हुए उसकी आत्मा तक को लहुलुहान कर दें। सड़क पर पान-बीड़ी को लेकर लफंगी लड़ाई से लेकर पॉश दफ्तरों में अंग्रेदीजां बॉस तक गुस्से में यही गालियां उचार पाता है।

'धिक औरत' बोलने का ये सिलसिला हर कहीं दिख जाता है। शादी के बाद सरनेम बदलना भी मर्दानी शरतंज का एक मजबूत प्यादा है। वैसे तो परंपरा के नाम पर औरतें खुद ही अपना सरनेम बदल डालती हैं, लेकिन अगर कोई भटकी हुई औरत ऐसा करने से इनकार कर दे तो प्यार की नकेल से उसे साधा जाता है। इससे भी काम न बने तो एक नुस्खा तो अचूक है। पति महोदय शक करने लगें। वे बात-बेबात जाहिर करें कि बीवी साहिबा की दुनिया में कोई और मर्द भी है। बस, घबराई औरत आनन-फानन पुराने सरनेम को सांप की केंचुली जैसे उतार फेंकती है। मिट्टी की तहों के नीचे दबती ये पुरानी पहचान जल्द ही मिट्टी में मिल जाती है और ऐसा नहीं है कि मर्द केवल नाम-धाम बदलने के फतवे ही देते रहे। पहचान भुलाने में वे औरतों की खूब मदद भी करते हैं। सादे चेहरे वाली युवती को सिर से पैर तक नई पहचान से लाद दिया जाता है। सिर पर चौड़े पाड़ की मांग निकाल सिंदूर थोप देते हैं। जिंदादिली से भरा ये लाल रंग ब्याहता की जिंदगी से बारी सारे रंग सोख लेता है और उसे बस यही याद रहता है कि वो फलाने की औरत है। वहीं शादीशुदा मर्द का नख-शिख प्रायः उसके चरित्र की तरह सफाचट होता है। शादी हुई है, कितनी शादियां हुई हैं, या फिर कई ब्याहताएं चल बसीं- किसी बात का कोई सबूत उसके शरीर पर नहीं दिखता। पश्चिमी देशों ने बाईं अंगुली में छल्ला पहनने का रिवाज जरूर शुरू किया लेकिन वो मंगलसूत्र की तरह गले का खूंटा नहीं बन सका। चाहे जो पहने, चाहे जो उतारे।


बीते दिनों चैनल बदलते हुए गलती से एक प्रवचन के कुछ वाक्य कानों में पड़ गए। स्टेज पर पद्मासन में बैठे एक ज्ञानी 'पुरुष' महात्मा (जाहिर है, औरतें तो महात्मा होती नहीं) स्त्री-पुरुषों के बारे में बता रहे हैं। स्त्रियों की तुलना वे हीरा-जड़े गहनों से करते हुए बताते हैं कि स्त्रियों को आभूषणों की तरह ही तिजोरी में संजोकर रखना पड़ता है। दूसरी ओर पुरुष साग-पात की तरह हैं। वे खुले रहें, तो भी चोरी का डर नहीं। कुल मिलाकर ज्ञानी महात्मा ने साग-भाजी बनाकर ही सही, पुरुषों के छुट्टा घूमने को जायज बता दिया। प्रवचन का सबसे दिलचस्प हिस्सा वो था, जिसमें श्रोताओं में बैठी औरतें भी इस बात मुस्कुराते हुए सिर हिला रही थीं। उन्हें कैद से एतराज नहीं था, बशर्तें वे कीमती जेवर कहलाएं।

कीमती जेवर होने की कीमत आज की लड़कियों को चुकानी पड़ रही है। अव्वल तो वे अपनी मर्जी का पेशा नहीं चुन सकतीं। उनके लिए काम तय हैं, टीचर बन जाओ, या फिर जनाना-रोग विशेषज्ञ। या बहुत हुआ तो इंजीनियर बन जाओ, लेकिन संभलकर इमारतें बनाने वाली इंजीनियर तुम नहीं बन सकती। वो काम पुरुषों का है। ऐसा कोई काम न चुनना, जिससे घर की नाक कटे। यहां समझ लीजिए कि घर की अदृश्य नाक छुईमुई की पत्तियों से भी ज्यादा नाजुक होती है तो इस बात पर भी सिकुड़ जाए कि लड़की की पोस्टिंग दूसरे शहर में हो रही है। थोड़े उदारमना लोग भी हैं, जो कहते नहीं अघाते कि उन्होंने अपनी बेटी-बहू को नौकरी करने की इजाजत दी। वे इजाजत को नाश्ते की प्लेट में लड्डुओं की तरह सजाकर पेश करते हैं और घर आए हर मेहमान को दिखाते हैं। देखिए भई, हम कितने प्रोग्रेसिव लोग हैं, जो लड़की को चुनने की आजादी देते हैं। इधर नौकरी पर जाती लड़की तमाम उम्र इस आजादी की कीमत चक्करघिन्नी बन चुकाती रहती है। वो लगातार खुद को सुपरवुमन साबित करती है ताकि कहीं मुश्किल से मिली आजादी छिन न जाए। वो नौकरी करती है। बावर्चीखाने में साठ किस्म के पकवान बनाती है। परिवार को बेटा देती है और पति से लेकर बुढ़ाते माता-पिता को खुश रखती है। ये सारी कीमत वो उस आजादी के लिए चुकाती है, जो असल में उसके पास कभी रही ही नहीं।

एक और जुमला है, जो औरतों के खिलाफ काफी महीन साजिश है, इतनी बारीक कि शायद ही नजर आए। कहा जाता है कि लड़कियां, लड़कों से ज्यादा मजबूत होती हैं और उन्हें जन्म के बाद उतनी देखरेख की जरूरत नहीं होती। एक, केवल इसी एक जगह औरतों को मर्दों से मजबूत माना गया, वो भी इसलिए कि उनकी देखभाल न करनी पड़े। पुरुष-संतान नाजुक होती है। उसे दूध भी चाहिए, मालिश भी और प्यार भी। कन्या-संतान सड़क किनारे उगा पौधा है जो बिना खाद-पानी, धूल फांकता हुआ अपने-आप बढ़ जाएगा। हो भी यही रहा है। सड़क किनारे दरख्त उगते जा रहे हैं। गैरजरूरी ये दरख्त सड़क घेरने के इलजाम में जाने कब काट भी दिए जाते हैं। इधर पुरुष रूपी बोगनवेलिया घर के प्रवेश-द्वार पर सजा हुआ है। लाल-गुलाबी बोगनवेलिया हमारे घरों की पहचान है।

सिलसिला लंबा है। अंग्रेजी में एक कहावत है- History does not occur in a vacuum। भाषा के बीहड़ों में भटकने की बजाए इसका आसान अनुवाद करते हैं। इतिहास यूं ही नहीं बनता, उसके पीछे लंबा इतिहास होता है। औरत, जो आज गैरजरूरी पेड़ बनी हुई है, उसकी जड़ों का इतिहास भी हजारों साल पुराना है। मिट्टी में कहीं बहुत गहरे दबा हुआ। अब बारी औरतों की है। महिला-दिवस पर चौबीस घंटों की छुट्टी और फूल-तोहफों पर इतराएं या फिर इतिहास में लौटकर उस जड़ को ही उखाड़ फेंकें।


                           Editor in Chief

                Abhishek Malviya (अभि सरकार)

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